डॉ. लेनिन रघुवंशी पूर्वी उत्तरप्रदेश में ग़रीब और कमज़ोर लोगों के साथ होने वाले तरह-तरह के ज़ोर-जुल्म की कहानियां सरोकार को भेज रहे हैं. पेश है उस श्रृंखला की चौथी किस्त. इस बार रामदयाल नामक एक बंधुआ मज़दूर की दास्तान उन्हीं की जुबानी :
मेरा नाम रामदयाल, उम्र-27 वर्ष, पुत्र-स्व. लोचन है। मैं ग्राम-सराय, तहसील-पिण्डरा, थाना-फूलपुर, जिला-वाराणसी (उत्तर प्रदेश) का निवासी हूँ। गाँव में हमारे बिरादरी के लगभग 60 घर हैं।
हमारी शादी 11 मार्च, 1999 में सुनीता से हुई. मेरे तीन बच्चे : दो लड़के, पुजारी, उम्र 10 वर्ष (प्राथमिक विद्यालय-देवराई में कक्षा चार में पढ़ता है) तथा विफाई, उम्र 6 वर्ष (कक्षा दो) और एक लड़की रेशम 2 साल की है।
वर्तमान में राजा भट्टा, ग्राम-उंदी से बंधुआ मजूरी से छुड़ाये जाने के बाद खेत-मजदूरी करके परिवार का भरण-पोषण कर रहा हूँ। कभी-कभी ट्रैक्टर या मिट्टी काटने की मजदूरी भी कर लेता हूँ। एक दिन में 50 रुपये मजदूरी मिलती है। जिसमें सुबह 6 बजे से दोपहरर बजे तक काम करना होता है। कभी-कभी पूरा दिन का काम मिल जाता है तो 100 रुपये की मजदूरी हो जाती है। आये दिन बेकार बैठना भी पड़ता है. दो-चार दिन तक कोई काम नहीं मिलता। किसी प्रकार गुज़र-बसर हो रहा है। मैं दाएं पैर से विक्लांग हूँ. इसलिए मैं बोझा नहीं उठा सकता लेकिन अन्य बहुत तरह के काम कर सकता हूं। मैंने साड़ी बिनने का काम भी किया है, लेकिन बिनकारी की हालात गिरने के बाद खेत-मजदूर का काम करना पड़ा।
एक दिन मेरे रिश्तेदार आये और राजा भट्ठा पर काम करने को कहा। बोला कि वहां का मालिक अच्छा है, ईमानदारी से मजदूरी देगा। हम पांच जोड़ी यानि दस लोग अपने बच्चों के साथ वहां काम करने गये। वहां हम लोग विश्वास पर काम करने गये थे। तीन महीने तक सब ठीक-ठाक रहा। एक दिन अचानक भोला की लड़की संतरा (उम्र-5 वर्ष) की तबियत खराब हो गयी। भोला मालिक बब्लू सिंह से ईलाज के लिए पैसा मांगा। मालिक ने बोला, 'पैसा नहीं है, चल काम कर और उठ कर मारने लगा। जिससे अभी भी उसके कान से खून व मवाद आता है। उस समय भट्ठा मालिक शराब पिया हुआ था और दो-चार लोग उसके साथ बैठे थे।
भोला के साथ हुई घटना के बाद कुछ सोचकर हम मालिक के पास गये और बोले, ''मालिक तीन दिन से बच्ची को बुखार है, कुछ पैसा दे दीजिए।'' यह सुनकर हमें भी गाली-गलौज करके भगा दिया। हम डर से अपने निवास स्थान पर आ गये। उस समय हमें बहुत गुस्सा भी आ रहा था, लेकिन हम मजबूर थे। वहां से हम लोग भाग भी नहीं सकते थे, क्योंकि हम लोगों के लिए रखवार (निगरानी करने वाला) लगा रखा था। उन लोगों से बोला गया था कि ये लोग भागे नहीं, देखते रहना। सप्ताह भर की खुराकी मिलने के बाद लगभग 15 दिन तक हम लोगों ने वहां काम किया। इस बीच मालिक रोज़ आकर धमकाता था। कहता था, ''कहीं भागे तो भट्ठा में झोंक देंगे।'' औरतों को भद्दी-भद्दी गालियां देता था और उठाकर ले जाने की बात करता था। यह सब देख-सुनकर हमारी तकलीफ़ और ज्यादा बढ़ गयी थी। हम सोच रहे थे कि किसी तरह मौका का तलाश कर अपने गांव भाग जाए।
जब गाली-गलौच, मार-पीट का अत्याचार बहुत बढ़ गया, तब हम लोग एक दिन 3 बजे सुबह मिट्टी पाथने के बहाने साथ-साथ भाग गये। पहरेदार लोग निश्चिंत थे कि अब हम लोग नहीं भागेंगे। खेते-खेते पैदल चल कर भट्ठा से उत्तर दिशा लगभग 8 किलोमीटर दूर आयर बाजार के आगे सिंधौरा तक पत्नी व बच्चों के साथ आये। भागते समय डर भी लग रहा था कि कोई हम लोगों को पकड़ न ले। फिर भी हम लोग भगवान के सहारे भाग रहे थे। आज भी उस भट्ठे की याद आने पर शरीर के रोएं खड़े हो जाते हैं। हमारी बिरादरी में किसी के साथ ऐसा न हो।
पिण्डरा आने पर एक नदी (नंद नाला) के किनारे दो-चार पेड़ है, उसी की छांव में पूरी दोपहर हमलोग छिपे रहे। वह महीना इसी साल का अप्रैल था, तारीख याद नही आ रही है। जब शाम में अंधेरा छाने लगा तब हम लोग वहां से पूरब सरैयां गांव के बगल में रतनपुर गांव के पोखरा के पास आये। उस समय रात के लगभग 9 बजे का समय हो रहा था। गाड़ी की रोशनी देखते ही हम लोग भागने लगते थे, क्योंकि पूरे इलाके में हल्ला हो गया था कि मालिक भागने वाले मजदूरों को खोज रहा है। मालिक कपड़ा बदल-बदलकर तथा हेलमेट लगाकर हम लोगों के बारे में पूछताछ कर रहा था।
दो दिन-दो रात हम लोग पोखरा के किनारे बिताए। खेत में चलते-चलते बच्चों के पांव फुल गये थे। खाने के लिए कुछ नहीं था, केवल पानी पीकर या कुछ हल्का मिठा खाकर हमने गुजारा किया। पीने के लिए पोखरा का पानी ही था। वहीं ताल पर छुपे-छुपे एस ओ और एस डी एम साहब के फोन नम्बर की जानकारी लेकर फोन किया। लेकिन कोई सहायता के लिए नहीं आया। तब हमने 'मानवाधिकार जन निगरानी समिति' के मंगला भैया को फोन लगाया। उन्होंने हम लोगों को ढ़ाढस बंधाया और बोला कि आपलोग तहसील दिवस में यहां आ जाओ, उस दिन मंगलवार था। हम बोले, ''हम नही आ पायेंगे, डर है कि कहीं मालिक देख ले और पकड़कर ले जाए, मार-पीट करे।'' तब उन्होंने कहा-''वही रहो, हम आते हैं।'' वे आये और तहसील पर हम सारे लोगों ने साहब को आवेदन दिया।
आवेदन देते समय मालिक के रिश्तेदार (कनकपुर के लोग) तथा अन्य लोग हमें डराने-धमकाने लगे, लेकिन हम लोगों ने हिम्मत जुटाकर सभी जगह आवेदन दिया। फिर रोड से नहीं जाकर ताले-ताले पकड़कर घर गये। घर पहुँचने के बाद भी हम लोग डरे हुये थे और दो-तीन लोग पहरेदारी कर रहे थे कि कही से कोई आ न धमके।
उसके बाद भी महीना भर मलिक हमलोगों को खोजते रहा। जब वह बस्ती की ओर गाड़ी से आता था, हम लोग भाग जाते थे। उसके चले जाने के बाद ही फिर बस्ती में आते थे। हम लोगों में से दो आदमी यही देखने में लगे रहते थे कि मालिक का गाड़ी आ रही है कि नहीं। अगर कभी बात निकलती है या सोचने लगते हैं तब सर में दर्द होने लगता है और चक्कर भी आने लगता है। सुबह उठने के साथ ही पुरी बात दिमाग़ में घुमने लगता है। मालिक के द्वारा कही बातें या उसे देखते ही हमारा शरीर सुन्न हो जाता है। आज भी आपसे बात करते हुए वैसा ही लग रहा है।
उस एक महीने में जीवन गुजाराना बहुत तकलीफदेह था। काम करने के लिए दूर जाना पड़ता था और उसी मजदूरी से कई दिन गुजारा करना पड़ता था। हम लोगों की जिंदगी क्या ऐसी ही रहेगी, हम लोगों को सुनने वाला कोई नहीं है? हम लोग जिलाधिकारी (वाराणसी) के बंगले पर गये। आवेदन देने के बाद भी मालिक हम लोगों को ढ़ूंढ रहा था। उसके बाद एक दिन तहसील दिवस पर हम लोगों की औरतें जब जिलाधिकारी को आवेदन देने जा रही थी, तभी वही पर बैठा एस ओ रोककर पूछा, ''तुम लोग इतनी भीड़ में कहाँ जा रहे हो'' और आवेदन ले लिया। आवेदन लेने के बाद एक अलग कमरे में हम सभी को बुलाया और पूछताछ किया। पूरी मामला जानने और भट्ठा का पता लेने के बाद बोला कि तुम लोग घर जाओ, हम उसको पकड़ने जा रहे है। हम लोग भी घर चले आए। तब से मालिक हमलोगों को ढूढ़ना कम कर दिया। उस दौरान हमें रात में नींद नहीं आती थी, नींद आने पर सपना आता था कि मालिक हथियार लेकर दौड़ा रहा है हम भागने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन भाग नहीं पा रहे है। कई लोग को हदस के मारे बुखार आ गया था।
आवेदन देने के चार दिन बाद रात में लगभग 8 बजे एक मोटर साइकिल पर दो पुलिस वाले आये, उन लोगों ने औरतों से बात की और कहा, ''तुम लोगों ने गलत बयान दिया है, सुलह कर लो, नहीं तो तुम साले लोग फँस जाओगे और पिटाओगे सो अलग।'' हम लोग तो गाड़ी की रोशनी देख कर ही भाग गये थे। जब हम वापस बस्ती में आये तब महिलाओं ने सारी बात बतायी।
लेकिन यहां आने पर अभी पता चला कि संस्था के द्वारा लिखा-पढ़ी करने पर हम लोगों का मामला सुप्रीम कोर्ट में चला गया है। संस्था वालों ने हमें बताया है कि सुप्रीम कोर्ट के पीआइएल सेल की ओर से इस मसले पर जवाब तलब के लिए कोई नोटिस आयी है. अब हमें संतोष हुआ है और लग रहा है कि इंसाफ होगा। आज हमें भी बड़ा होने का एहसास हो रहा है। भट्ठा मालिक बोलता था कि जिलाधिकारी और बड़े-बड़े अफसर मेरे रिश्तेदार हैं, हमारा कोई कुछ नही बिगाड़ सकता है।
अब अच्छा लग रहा है। हम लोग भी उसको जवाब दे सकते हैं। उस पर मुकदमा दायर हो जाए तो और खुशी की बात होगी। जल्द से जल्द सुनवाई हो। हम लोग भी आजाद हो जाएं और कही काम-धंधा करें। कानूनी कार्यवाही तो चलते ही रहेगी। अपनी पूरी बात कहने पर अच्छा लग रहा है, एक बोझ हमारे ऊपर से हट गया। हम बहुत खुश हैं कि सुप्रीम कोर्ट में मामला चला गया है। हम भूखे पेट यहां आये थे और उसे भी लग रहा था, लेकिन अब अपनी खुशी संभाले नहीं संभल रही है। आपके द्वारा कहानी सुनने पर लगा था कि यह हमारी कहानी है, बहुत अच्छा लग रहा था। ध्यान योग करके बहुत आनन्द आया। अब हम लोग कही भी आ-जा सकते हैं।
उपेन्द्र कुमार के साथ बातचीत पर आधारित
Tags: bounded labour, brick labour, varanasi
ये दर्द ,दर और हैवानियत की ये इन्तेहा है….इस यूग में भी बधुवा मजदूरी..किसने कहा की ये प्रजातंत्र है..
लोकतंत्र का एक घिनोना रूप…. न जाने रामदयाल जेसे कितने लोग इस तरह की दहसत भरी जिंदगी जी रहे होगे. कौन कहता है कि इंडिया में प्रजातंत्र है … मै तो कम से कम नहीं कह सकता …